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Ramblings by Jaya Jha

Thursday, February 10, 2005

गीत कोई मन में तो है

गीत कोई मन में तो है।

सड़क नहीं है तेज धूप है,
पड़ा मानव का विकृत रूप है।
भूख अकेली नहीं साथ में
गिरा हुआ एक छत भी है।
सिहरन उसकी तन में तो है।

गीत कोई मन में तो है।

बंद भविष्य के रास्ते हैं,
अँधेरों में दिन काटते हैं ।
विडंबना ही है क़िस्मत की,
वरना कुछ कर पाने की क्षमता
थोड़ी हर जन में तो है।

गीत कोई मन में तो है।

सूखा क्यों लगता ये विवरण,
ख़ुद को धिक्कारता क्यों है मन?
कुछ छूट गया है, कुछ छोड़ आई हूँ,
कुछ सच्चाइयों से दूर करने की हाय!
क्षमता अभागे धन में तो है।

गीत कोई मन में तो है।

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