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Ramblings by Jaya Jha

Wednesday, March 09, 2005

Just Like That...

Here is a nice excerpt from the preface of Madhushala by Bachchan himself -

बादल अपना अपनापन अगणित बूँदों में, बूँदें अपना अपनापन जल-धाराओं और नदियों में, और नदियाँ अपना अपनापन समुद्र में खोने को आतुर हैं, और वह समुद्र भी तो हर समय विक्षुब्ध रहकर किसा ऐसे को खोज रहा है जिसके चरणों में वह अपनी संपूर्ण जलराशि अर्घ्य-रूप में अर्पित करके रिक्त हो जाए। पृथ्वी अपना अपनापन अगणित वृक्ष, बेलि, पौधों में; वृक्ष, बेलि, पौधे अपना अपनापन पुष्प और कलियों में, पुष्प और कलियाँ अपना अपनापन सौरभ समीर में मिश्रित करने को आकुल हैं और वह समीर भी तो निरंतर चंचल रहकर किसी ऐसे को ढूँढ़ रहा है, जिसके अंचल को एक बार - केवल एक बार लहराकर वह उसी में विलुप्त हो जाए। पतंग अपना अपनापन दीपक के आगे, दीपक अपना अपनापन दिवस के आगे, दिवस अपना अपनापन रजनी के आगे, और रजनी-शशि-तारक-मणि-मंडित रजनी - अपना अपनापन सूर्य के आगे अर्पण करने को व्याकुल है; और वह सूर्य भी तो आदि-सृष्टि से किसी ऐसी महज्ज्योति के चरणों को प्राप्त करने के लिए तपस्या कर रहा है जिसकी एक बार आरती उतार कर वह बुझ जाए।

इसी प्रकार वादक अपना अपनापन स्वरों में प्रकट करके यह चाहता है कि वे किसी के कानों में क्षण भर गूँजकर, विस्तृत गगन में क्षीण होकर विलीन हो जाएँ। चित्रकार अपना अपनापन रेखाओं में तथा रंगों में प्रकट करके यह इच्छा करता है कि वे किसी की आँखों में पल भर प्रतिबिंबित होकर, धुंधले बनकर तिरोहित हो जाएँ। शिल्पकार अपना अपनापन पाषाण-प्रतिमाओं में अभिव्यक्त करके यह अभिलाषा करता है कि वे किसी की मृदुल हथेली का क्षणिक स्पर्श प्राप्त कर खंड-खंड हो धरा पर बिखर जाएँ। और कवि अपना अपनापन सजीव शब्द-पदों में व्यंजित करके चाहता है कि वे किसी के हृदय को शीघ्रता से छूकर संसार के सघन कोलाहल में छिप जाएँ-खो जाएँ।

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