क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?
सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?
क़दम अकेले बढ़ाए मैंने कई बार,
पर्वतों-खाईयों को किया अकेले पार।
उतार-चढ़ाव ज़िन्दगी के
कितने ही झेली हूँ मैं।
और आज
सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?
Categories: Own-Poetry
कभी उतरी एक देश अनजान,
निकली बाहर जब थी नादान।
और तब भी तनहाइयों से
हँसते-हँसते खेली हूँ मैं।
और आज
सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?
क़दम अकेले बढ़ाए मैंने कई बार,
पर्वतों-खाईयों को किया अकेले पार।
उतार-चढ़ाव ज़िन्दगी के
कितने ही झेली हूँ मैं।
और आज
सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?
Categories: Own-Poetry
कभी उतरी एक देश अनजान,
निकली बाहर जब थी नादान।
और तब भी तनहाइयों से
हँसते-हँसते खेली हूँ मैं।
और आज
सब कुछ होते हुए भी
क्यों इतनी अकेली हूँ मैं?
2 Comments:
At Mon Feb 21, 04:28:00 PM 2005, Jaya said…
Since I am removing the Haloscan Comments, I am copy-pasting the comments I got on this post here.
--
I have read some of the poems at ur blog. I complement on ur writing beautiful soul-searching poems. I simply admire these.
Anita | Email | 02.14.05 - 1:31 pm | #
At Sat Jul 02, 01:04:00 PM 2005, Vikash said…
adhurepan ka masla jindagi bhar hal nahi hota
kahin aankhen nahi hoti, kahin kajal nahi hota.
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